सेठ रामनाथ ने बीमारी से बेहाल पड़े-पड़े निराशा भरी नजरों से अपनी पत्नी सुशीला की ओर देखकर कहा- "मैं बड़ा बदकिस्मत हूँ, शीला। मेरे साथ तुम्हें हमेशा ही दुख भोगना पड़ा। जब घर में कुछ न था, तो रात-दिन घर के काम और बच्चों के लिए मरती थीं। जब कुछ सँभला और तुम्हारे आराम करने के दिन आये, तो यों छोड़े चला जा रहा हूँ।
आज तक मुझे उम्मीद थी, पर आज वह उम्मीद टूट गयी। देखो शीला, रोओ मत। दुनिया में सभी मरते हैं, कोई दो साल आगे, कोई दो साल पीछे। अब घर का भार तुम्हारे ऊपर है। मैंने रुपये नहीं छोड़े; लेकिन जो कुछ है, उससे तुम्हारा जीवन किसी तरह कट जायगा ... यह राजा क्यों रो रहा है?"
सुशीला ने आँसू पोंछकर कहा- "ज़िद्दी हो गया है और क्या। आज सबेरे से रट लगाये हुए है कि मैं मोटर लूँगा। 50 रु. से कम में आयेगी मोटर?"
सेठजी को इधर कुछ दिनों से दोनों बच्चों पर बहुत स्नेह हो गया था, बोले- "तो मँगा दो न एक। बेचारा कब से रो रहा है, क्या-क्या अरमान दिल में थे। सब धूल में मिल गये। रानी के लिए विदेशी गुड़िया भी मँगा दो। दूसरों के खिलौने देखकर तरसती रहती है। जिन पैसों को जान से भी ज्यादा समझा, वह आखिर में डाक्टरों ने खाया। बच्चे मुझे क्या याद करेंगे कि बाप था। बदनसीब बाप ने तो पैसे को लड़के-लड़की से ज्यादा समझा। कभी एक पैसे की चीज भी लाकर नहीं दी।"
आखिरी समय जब दुनिया के छोटे होने का कड़वा सच बनकर आँखों के सामने खड़ा हो जाता है, तो जो कुछ न किया, उसका दुख और जो कुछ किया, उस पर पछतावा, मन को दयालु और अच्छा बना देता है। सुशीला ने राजा को बुलाया और उसे गले से लगाकर रोने लगी। वह ममता, जो पति की कंजूसी से भीतर-ही-भीतर तड़पकर रह जाती थी, इस समय जैसे खौल उठी। लेकिन मोटर के लिए रुपये कहाँ थे? सेठजी ने पूछा- "मोटर लोगे बेटा; अपनी अम्माँ से रुपये लेकर भैया के साथ चले जाओ। खूब अच्छी मोटर लाना।"
राजा ने माँ के आँसू और पिता का स्नेह देखा, तो उसकी बच्चों वाली जीद जैसे पिघल गई। बोला- "अभी नहीं लूँगा।"
सेठजी ने पूछा- "क्यों?"
"जब आप अच्छे हो जायँगे तब लूँगा।"
सेठजी फूट-फूटकर रोने लगे।
तीसरे दिन सेठ रामनाथ गुज़र गए। अमीरो के जीने से दुख बहुतों को होता है, सुख थोड़ों को। उनके मरने से दुख थोड़ों को होता है, सुख बहुतों को। महाब्राह्मणों की मण्डली अलग सुखी है, पण्डितजी अलग खुश हैं, और शायद बिरादरी के लोग भी खुश हैं; इसलिए कि एक बराबर का आदमी कम हुआ। दिल से एक काँटा दूर हुआ और पट्टीदारों का तो पूछना ही क्या। अब वह पुरानी कसर निकालेंगे। दिल को ठंडा करने का ऐसा मौका बहुत दिनों के बाद मिला है।
आज पाँचवाँ दिन है। वह बड़ा भवन सूना पड़ा है। लड़के न रोते हैं, न हँसते हैं। मन मारे माँ के पास बैठे हैं और विधवा भविष्य की अनगिनत चिन्ताओं के भार से दबी हुई बेजान-सी पड़ी है। घर में जो रुपये बच रहे थे, वे अंतिम-संस्कार में खत्म हो गये और अभी सारे संस्कार बाकी पड़े हैं। भगवान्, कैसे बेड़ा पार लगेगा।
किसी ने दरवाजे पर आवाज दी। नौकर ने आकर सेठ धनीराम के आने की खबर दी। दोनों बच्चे बाहर दौड़े। सुशीला का मन भी एक पल के लिए हरा हो गया। सेठ धनीराम बिरादरी के सरपंच थे। औरत का दुखी दिल सेठजी की दया से खिल उठा। आखिर बिरादरी के मुखिया हैं। ये लोग अनाथों की खोज-खबर न लें तो कौन ले। धन्य हैं ये पुण्यात्मा लोग जो मुसीबत में दुखियों की रक्षा करते हैं। यह सोचती हुई सुशीला घूँघट निकाले बैठक में आकर खड़ी हो गयी। देखा तो धनीरामजी के अलावा और भी कई आदमी खड़े हैं।
Puri Kahaani Sune..
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